होली का महत्त्व वैदिक काल से ही : आचार्य डॉ. राजनाथ झा
न्यूज़ डेस्क : मधुबनी
भारतीय सनातन धर्म में होली पर्व का महत्व वैदिक कालिक है । इस पर्व को मनाने की परम्परा वैदिक काल से हमारे राष्ट्र में चली आ रही है । होलिका दहन एक वैदिक यज्ञ है जिसमें आदिकाल से ही हमारे संस्कृति में नए कृषि फसल को अग्नि को समर्पित कर गृहस्थ लोग अपने गृहस्थी में उपयोग करते हैं ।
साथ ही होली पर्व एक प्रेम सौहार्द का पर्व है । मानव मात्र एक दूसरे से गीले शिकवे को छोड़ कर गले मिलते हैं ।
होलिका दहन में जो विकृतियां आ रही है ,उससे बचना आवश्यक है । बहुत सारे लोग बगैर जानकारी के टायर, ट्यूब, अविहित लकड़ी आदि जलाते हैं जो न तो प्रकृति के लिए ठीक है, न समाज के लिए । अतः इन चीजों से परहेज आवश्यक है ।
होली एक सात्विक पर्व है । अतः इस पर्व पर तामसिक आहार लेना भी श्रेष्ठ नहीं माना गया है । होली उल्लास और प्रेम-सौहार्द्र का पर्व है ।
इस वर्ष 17 । 3। 22 को रात्रि कालीन पूर्णिमा रहने से भद्रा सम्पाति के पश्चात रात्रि 1बजकर 9 मिनट के वाद होलिका दहन होगा ।
18 । 3 । 22 को उदयगामिनी पूर्णिमा रहने से पूर्णिमा स्नान दान और अपने अपने कुलदेवता को भक्त लोग सिंदूर पातरी आदि अर्पण करेंगे ।
19 । 3 । 22 को प्रतिपदा रहने से होली खेल होगा ।
किसी भी पर्व का निर्णय धर्मशास्त्र के आधार पर होता है जो इस प्रकार से है ।
आवश्यक नही कि होलिका दहन के अगले ही दिन होली हो । यह निर्णय तिथि के आधर पर होता है । इसलिए कोई भ्रान्ति नहीं है । समस्त सनातन धर्मावलम्बियों को उपर्युक्त आधर पर ही होली पर्व मनाना धर्मशास्त्रोचित है । होलिकादहन के धुआँ से भी प्रकृति में होने वाले समस्त शुभाशुभ फल की जानकारी प्राप्त करने के विधि भी हमारे भारतीय आदर्श ऋषियों ने बतलाए हैं ।
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